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Chinhari: The Young India published its first newsletter in November, 2019. This newsletter has been created as a platform for young adivasi, dalit and/or youth from other backward castes to speak to the outside world. It is a space for exchange of thought and perspective between the subaltern and the elite. The newsletter focuses on publishing material written by young women from rural Chhattisgarh. Their articles are their expression of experience or अभिव्यक्ति.  The newsletter helps them both embrace and question the world they live in. Chinhari shall publish a newsletter quarterly and our readers can subscribe to it for free. 

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NEWSLETTER 1: NOV. 2019

EDITOR'S NOTE:

चिन्हारी एक सपना है। नए रिश्ते बनाने का सपना - पुरुष और नारी के बीच नया रिश्ता, मनुष्य और पर्यावरण के बीच नया रिश्ता, आदिवासियों के अतीत और वर्त्तमान के बीच नया रिश्ता। चिन्हारी एक सपना है -की कि युवा घर, खेत और जंगल में श्रम को खूबसूरती से बांटे। पर्यावरण और जंगल की विविधता और उसकी ताल के साथ मनुष्य की ज़िन्दगी को जोड़ने का सपना। जो खेती आदिवासी करते थे और जिस तरह से करते थे उसके बीच एक अहिंसक दाण्डिक रिश्ते का सपना। चिन्हारी एक सपना है की कि लड़कियां या एक दूसरे के साथ अपने ज़िन्दगी में हो रही हिंसा, अपने अनुभव को बांटने का सपना, और बांटते - बांटते बदलने का सपना। आदिम खेती के साथ फिर से रिश्ता बनाने का सपना। बाड़ी में, एक सामूहिक ज़मीन में, देसी बीज से धान  धन-सब्ज़ी उगने उगाने का सपना और उसी से खेती का के एक नया नए प्रैक्टिस और खाने का के एक नया नए विचित्र धुंध विचार ढूंढ लेने का सपना। नया पोषण और नया स्वस्थ स्वास्थ्य का सपना। आदिवासी जान(jan)-जनजीवन (आदिवासी वर्ल्ड-व्यू) के साथ जो रिश्ता छूट गया है उस रिश्ते को फिर से ढूंढने का सपना । जल जंगल जमीन से जो जुड़ाव अब सीमित होने लगा है उसमें फिर से आदिवासी ढोलक का की  गुंजाईश ढूंढने का सपना। लिंग, आदिवासियत और पर्यावरण को साथ लाने का सपना।  Read more...

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NEWSLETTER 2: JUNE 2020

EDITOR'S NOTE:

समाज के बंधे नियमों में अक्सर हमारे सपने भी बंध जाते हैं और इन सामाजिक नियमों के साथ साथ हम अपने बंधे हुए सपनों को भी स्वीकृति दे देते हैं। तो ऐसे में चिन्हारी की लड़कियों से जब मेरा मिलना हुआ, तो मुझे ये थोड़ी उन्मत्त ही लगी। ये किशोरियां हैं, कहने को तो ये अब बच्चियां नहीं हैं, पर ज़िंदगी के प्रति इनका उल्लास देख मुझे बचपन ही याद आता है। वो बचपन जो उम्र के सयानेपन में मर सा जाता है। ऐसा तो नहीं की सयानेपन के सपने नहीं होते, पर सयानेपन के सपने ठीक सयानेपन जैसे गंभीर हो जाते हैं। सोचे समझे नियमों के दायरों में ही रह जाते हैं। ये किशोरियां, या कहूँ अब इन्हे बच्चियां, इनके सपने मुझे कुछ बेधड़क से मालूम पड़ते हैं। बेधड़क सी ये खुद और कुछ और बेधड़क इनके सपने। इन्हे देख कुछ तो होती है हैरानी, और फिर, कुछ होती है परेशानी। जब देखो तब तब तो खिलखिलाती सी नज़र आती हैं, तो इनकी खुशी देख होती है फिर वही हैरानी। समझ सा नहीं आता किस बात का है जश्न, कुछ तो है इनमे जो है बड़ा मगन। जिसपे बुदबुदाती सी खिल जाती है इनकी लगन, वरना ऐसे कैसे फावड़ा लिए अपने खेतों में करती हैं ये जतन! अपना दाना खुद बोती हैं। अपना खेत खुद जोतती हैं। पूछो तो कहती हैं - नव भारत का निर्माण कर रही हैं। बस यही सुन कर होती है परेशानी - नव भारत का निर्माण? अरे भाई, ये कोई हल्का फुल्का काम थोड़े ही है, जो यूं खेलते खेलते कर दे रही हैं। नव भारत के निर्माण का काम है बड़ा। तो इसे करने वाला भी होना चाहिए ‘आदमी’ कोई ‘बड़ा’। जब तक ना हों शरीर पे चिलचिलाते (चमचमाते) सूट और बूट, जिनकी ज़बान पे चढ़ी अंग्रेज़ी मीठी लगे की जैसे हो तूत (शहतूत), जब तक ना भागे पीछे फाइलों के तले दबे मुलाज़िम की पूँछ, छुपाती हैं जो विकास के वादों का झूट - तब तक कैसे होगा नव भारत का निर्माण। गंभीर तनाव में कसी माथे की सलवटें, जो हैं बहुत थकी, नहीं दें जब तक कोई बड़ा भव्य परिणाम - तब तक कैसे होगा देश का नव निर्माण। ये बड़ा गंभीर मामला है। कई सेर आला दर्जे की विदेशी डिग्रियां भी तो लगेंगी। भाई, ये कोई छोटा मोटा मामला थोड़े ही है। पर ये बड़ी ढीट सी लड़कियाँ जान पड़ती हैं। कहती हैं की संगठन का निर्माण कर रही हैं। अब पूछे कोई इनसे की ये संगठन बना जो दिया है तो करती क्या हैं इस संगठन में? कहती हैं की इनके संगठन का नाम है 'चिन्हारी' और काम है इनका कि देखें ये सपना! बोलो तो, सपने देखना भी भला कोई काम हुआ! कहती हैं कि कोई उनके हिस्से के सपने ना देखे, कि अपने सपने वो खुद बुने, ऐसे सपने देखती हैं। इंसान का इंसान से, इंसान का पर्यावरण से, पुरुष का महिला से, शहर का गाँव से, आधुनिकता का आदिवासी से और अतीत का भविष्य से रिश्ता सुधर जाए, ऐसे सपने देखती हैं। इन रिश्तों के धागे स्नेह के धागे हों, शोषण को पिघला देने वाले वादे हों। रिश्ता सुधारने की अपनी कोशिश में ये देसी बीजों से जैविक खेती करती हैं। अपने आस पास के रिश्तों में हो रहे शोषण पे सवाल उठाती हैं। कभी नाटक रचती हैं तो कभी कहानियां लिखती हैं, पर बेधड़क सी आवाज़ में सवाल ज़रूर पूछती हैं। बदलाव की उम्मीद रखती हैं। खुद में और अपने आस पास वालों में। पूछती हैं, की ऐसे नहीं तो फिर कैसे होगा नव भारत का निर्माण?

किसी ने खूब कहा था की बड़े सपने सिर्फ बचपन ही देखता है। उसके बाद लोग बड़े हो जाते हैं और सपने रह जाते हैं छोटे। आपको पेश करती हूँ इन उन्मत्त लड़कियों के सपनों की कहानी। इस लिखित प्रस्तुति में और भी कुछ लोगों ने अपने विचार व्यक्त कर इस पत्रिका को सुन्दर अभिव्यक्ति प्रदान की है। इनके विचारों से चिन्हारी की अपनी सोच एक बेहतर तरीके से प्रस्तुत हो पाई है। Read more...

03/

EDITOR'S NOTE:

यह साल हमारे देश के लिए या यूँ कहें की पुरे विश्व में मानवीय समुदाय के लिए, चुनोतियों से पूर्ण रहा है। कोरोना नमक वायरस हमारे सामने है, और हमें अपनी सीमाओं का एहसास दिला रही हैं। 'विकास' की चिलचिलाहट में चमकता हमारा मानवीय मनोबल जो कि विशाल से अति विशाल हो चला था, अभी चोटिल बैठा है। आधुनिक विज्ञान और टेक्नोलॉजी ने हमें 'महामानव' बना अजय होने का जो विश्वास दिला दिया था, वह अब किसी भ्रम जैसा मालूम पड़ने लगा है। प्रकृति पर जय पाने का मानवीय दम्भ कुछ बिखरा हुआ महसूस हो रहा है। विकास का वो सपना जो जीवन सवार देने वाला वादा था, अब टुटा हुआ धागा लगता है। महामारी के इस दौर में उत्पीड़नो की जो कहानियाँ सुनी तो खुद के सिर्फ मानव होने का एहसास हुआ। ऐसा मानव जो किसी 'स्वयं' में नहीं बस्ता, सिर्फ 'रिश्तों' में बस्ता है। Read more...

NEWSLETTER 3: OCT. 2020

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